बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

संज्ञान एवं ज्ञान

 फाल्गुन कृष्ण पञ्चमी, बुधवार ; विक्रमाब्द २०७३ 

 

   वर्णानामर्थसंघानां  रसानां  छन्दसामपि |

      मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ||      ( रामचरितमानस ) 


         
        संज्ञान-ज्ञानश्च विज्ञान ...  
          
    संज्ञानात्मक संवेदनाएँ ज्ञानोदय के पूर्व ही समस्त संसयात्मक तम का वेधन कर देती हैं |  वसंतकालीन सूर्योदय ज्ञानोदय के समस्त चरणों को आलोकित करता हैं |  

   हम जिस जगत में रहते हैं, वह वस्तुओं लोगों एवं घटनाओं की विविधता से भरा हैं ; और इन विविध वस्तुओं का ज्ञान हमारी ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से हो पाता हैं |  ये ज्ञानेन्द्रियां मात्र वाह्य जगत से ही नहीं अपितु हमारे अपने शरीर से भी सूचनाएँ संग्रहित करती हैं |  हमारी ज्ञानेंद्रियों द्वारा संग्रहीत सूचनाएँ ही हमारे समस्त ज्ञान का आधार बनती हैं |  ज्ञानेंद्रियाँ वस्तुओं के विषय में विभिन्न प्रकार की सूचनाओं को पंजीकृत करके उन्हें मस्तिष्क को प्रेषित करती हैं ; जो उन्हें अर्थवान बनाता हैं |  हमारे आस-पास के जगत का ज्ञान तीन प्रमुख प्रक्रियाओं पर निर्भर करता हैं - संवेदना, अवधान तथा प्रत्यक्षण |  ये तीनों प्रक्रियाएँ एक दूसरे से अत्यधिक अंतर्सम्बंधित होती हैं |  इसलिए इन्हें समान्यतः एक ही प्रक्रिया संज्ञान के विभिन्न अंशों के रूप में समझा जाता हैं |  
    प्रेक्षण, प्रदर्श संग्रहण एवं विश्लेषण ज्ञान से सम्बंधित अनिवार्य चरण हैं |  संसूचन एवं प्रदर्श पंजीकरण में हमारी सातों ज्ञानेन्द्रियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है |  विश्लेषण में बहुधा हम परिक्षण एवं भूल विधि का प्रयोग करते हैं |  लेकिन चैतन्यों के लिए प्रत्यक्ष (डॉयरेक्ट) मंत्र-दर्शन भी संभव है |  जब मन-मस्तिष्क का समन्वय होता है, तब उनकी गति अबाध हो जाती है ; दिक्काल की सीमा निःशेष पड़ जाती है |  तब कहीँ जाकर मंत्र-दर्शन होते हैं | ….    


बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

दैनन्दिनी

मातृश्वरी बोधमयं च सत्यं
साहित्यसंगीत कलादि रूपं |
संज्ञान - ज्ञानश्च विज्ञान दातृ
वागीश्वरी त्वां चरणं नमामी ||


कंबु-कुंदेन्दु-मुक्ता तुषार शुक्लां
        या वर्णार्थ रस छंद साहित्य मूर्ति |
सद्विचारसार  जाड्यान्धकारापहम्
         बुद्धिप्रदां माँ सरस्वती भगवती ||


सत्यंज्ञानमतिः च काव्य-रस-कला साहित्य-संगीत रूपं
या वर्णार्थ सुवेदविधि गणितशास्त्रं ज्ञानविज्ञानकारं |
स्तोत्रे नवरत्नवर्णरचितं मस्यांकितम् पत्रकम्
सङ्कल्पेन समर्पितं तव पदे माता नमामित्व्वाम् ||

शान्तं शाश्वतसत्यज्ञान सहजं वैराग्य विज्ञान च
विद्यांसिद्धि भवेत सर्वसुलभे शांतिस्वरूपा कृपा |
मिथ्याज्ञानविनाश मा कुरू नमामि त्वां पदे भारती
विद्यांंदेहि नमस्तुते भगवती भक्तेष्टसिद्धिप्रदाम् ||

  विद्याकर गणेश्वर भव-भवानी नंदनं
       मुद मंगलदाता जय विघ्नेश्वराय |
   प्रवल-पावक-महाज्ज्वालमाला-वमन
          नमो नित्यं    सहस्रकिरणोज्ज्वलाय ||

    हरि-हर-अज वंदित चरन,  जय  भवपालक राम |
      विज्ञाविज्ञ जनों को ‘रवि’ सविनय करत प्रणाम ||

दैनंदिनी अति शुभ्र सुहावनी | पावन अमल विमल मनभावनी ||
धवल दुग्ध सम वादन मनोहर | वर्णरत्न अंकित ता उपार ||
शब्दाभूषन भूषित सुन्दर | पत्र-पत्र अंकित विचार वर ||
भाषा भनिति काव्य रस सरिता | नितनव मन मुदमंगल भरिता ||
सखा सत्य दैनिकी हमारी | बिधुबदनी सब भांति सँवारी ||
सदा एक रस मति अति धीरा | सत्य दैनिकी कागद कोरा ||
प्रीति प्रतीति भयउ मन मोरे | कागद मसी मित्र मानव के ||

दैनंदिनी मेरी सुहावनी है मनभावनी पावनी बानी सुहाए |
शब्दही भूषन भूषित सुन्दर मोदक प्रीति की रीति बनाए ||
प्रिय पावन मित्र-विचित्र यहै जो लिखै निज लेखनि बानी बनाये |
जो उभरै हिय अंतर मेरो सो सब कागद लेख लिखाए ||



 अति आनंद तरंग मन, प्रीति विपुल बहुरंग |
 छः बर्ष बीते मधुर, सखा तुम्हारे संग ||


दैनंदिनी से लाभ अपारा | बरनउ कुछ मति अनुसारा ||
प्रथमहिं सत्य सखा यह होइ | मित्र-विचित्र न ऐसा कोई ||
मसि कागद से करहि मिताई | पावहि नर सब विधि प्रभुताई ||
जगभर के सब कहहि विचारक | दैनंदिनी व्यक्तित्व सुधारक||
सद्गुरु सम यह देहि विचारा | प्रेरित करहि जीवन कै धारा ||
नित नव होहि ज्ञान-विज्ञाना | काव्य कला रचना रस नाना ||
अस विचार मैं कर मन माही | प्रतिदिन निज दैनंदिनी लिखही ||
गद्य काव्य वर भेद अनेका | लिखिहउ सकल विषय स्वविवेका ||
कथा निबंध पत्र विधि  नाना | छंद प्रबंध अनेक विधाना ||
गणितशास्त्र भौतिकी रसायन | जीवविज्ञान ज्ञान वर जीवन ||
जोतिष ऋतुविज्ञान खगोला | खनिज धारा रचना भुगोला ||
सिद्धान्त विधि सूक्ति वर बचना | विज्ञ कथन   कोविद रचना ||
लिखन प्रयास करबि मैं सोई | मेरे मन प्रबोध जस होई ||
जो विचार प्रेरित मम हिय से | सो लिखिहउ कागद पर मसि से ||
छमिहहिं विज्ञ दोष सब मोरे | मै मतिमंद बुद्धि अति भोरे ||
साहित्य विवेक एक नहीं मोरे | सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे ||
कर गहि पंकज पद रघुवर की | मागऊँ वर मै स्वान्तः सुख की ||
मार्गप्रदर्शक जीवन पथ की | दैन्दिनी यह 'रवि शंकर' की ||

       मंगल करनी सुपथ प्रदर्शीनी मल हरनि दैनन्दिनी |
गति सरस सरित सहित्य की होइहिं रवि की मनभावनी ||
      'रवि ' विनय करहि सहर्ष जय-जय माँ भगवती भारती |  
      माँ देहऊ अविरल भक्ति बुद्धि हरहु 'रवि ' की आरती ||

रविशंकर मिश्र


( यह दैनंदिनी मैं साप्ताहिक लिखने का प्रयास करुगा | पूर्वांकित भूमिका मैंने प्रथम वर्ष में लिखी थी; परंतु भूमिका का यह कलेवर कुछ  बाद सन २०१५ में लिखा गया | मंगलाचरण के एक एक  श्लोक लगभग प्रतिवर्ष  रचे जाते रहे | श्लोक २&५  पहले वर्ष; ३,४,&१ क्रमसः अगले वर्षों में लिखे गए | )