बुधवार, 6 सितंबर 2017

अनंत संकल्पना


    गणित और दर्शन परस्पर कितना अन्योनाश्रयित रहे हैं |  दर्शन से शून्य व अनंत को उधार लेकर गणित ने इसे अपरिभाषित, अनिर्धार्य तक आगे बढ़ाया |  आज दर्शनशास्त्र कुछ पिछड़ता सा दिखता है!    नेति नेति कह वेद !   मे कुछ हद तक अनिर्धार्य-अपरिभाषित भी नजर आता है; परंतु यह न-काफी है | व्यक्ताव्यक्त की मनोस्थिती जो भी दर्शन मे दिखती है |  वह गणित मे अशान्त-अनावर्तयन के रुप मे परिलक्षित होती है, जिसे अनिर्धार्य-अपरिभाषित के तुल्य नहीं कहा जा सकता |  आज दर्शन को  गणित कि दृष्टि चाहिये! आखिर ज्योतिष/गणित को वेद का नेत्र भी तो कहा गया है! अस्तु!!
    दर्शनशास्त्र में अनन्त-संकल्पना,  विराट प्रकृति के प्रेक्षणानुभूति से अवतरित हुआ तो गणित को यह ‘शून्य से भाजन’ की समस्या से  प्राप्त हुआ |  गणित के इस जटिल संक्रिया (शून्य से भाजन)  का ब्रह्मगुप्त ठीक से वर्णन नहीं कर सके और बाद में भास्कराचार्य ने भी इसका गलत उल्लेख भले ही  किया; फिर भी वे अंनत का प्राप्त कर  चुके थे |  बीजगणितम् में वे शून्य संक्रिया  लिखते है -

       खयोेगे   वियोगे  धनर्णं  तथैव
                 च्युतं शून्यतः  तद्  विपर्यासमेति |
       वधादौ वियत्खसय खं खेन घातो
                 खहारो भवेतखेन भक्तश्च राशिः ||

   शून्य की समस्त संक्रियाओं  संकलन, व्यवकलन, गुणन, वर्ग-वर्गमूल तक सही बताकर भास्कर अंततः भाजन में उलझ ही जाते हैं |  शून्य से विभक्त राशी को वे ‘खहर’ राशी कहते हैं |  पुनश्च खहर (अंनत) की  संक्रियाओं  और  प्रकृति को बताने हेतु दर्शन की सहायता लेते हैं |  
            
       अस्मिन विकारे खहरेण राशा -
                   वपि प्रविष्टेष्वपि निःसृतेषु |
       बहुष्वपि स्यात् लय सृष्टिकाले
                    ऽनन्तोऽच्युते भूतगणेषु यद्वत ||  

यहाँ,   + = ,   + कोई संख्या = ,  के साथ  ∞ - ∞  = ∞  कहते समय शायद उनके मन मे ईशोपनिषद का यह तथ्य भी रहा हो -
  ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
              पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
   स्यात् भास्कर ने 'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते' को कुछ  यों समझा  कि अनन्त से अनन्त घटाने पर भी अनन्त ही शेष रहता है |  जो भी हो इतना तो मान्य  है की भास्कराचार्य अपरिभाषित - अनिर्धार्य  के काफी करीब थे |  


    वास्तविक संख्याओं के क्षेत्र में शून्य से भजन अपरिभाषित है | अर्थात ऐसा व्यंजक जिसका कोई अर्थ नहीं होता और जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती |  एवम् कोई भी गणितीय व्यंजक अनिर्धार्य कहा जाता है ; यदि वह निश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सके | सीमा प्रमेयों में 0, 1 और अनंतता ( )  सहित कुल सात व्यंजक  ( 0/0, ∞/∞, 0 × ∞, ∞ − ∞, 00, 1  एवं  ∞0 ) अनिर्धार्य हैं |
     

    आप सभी को अनंत चतुर्दशी की हार्दिक शुभकामनाएँ !  एक बात और अनन्त के डोरे के चौदह गाठों का सात अनिर्धार्य व्यंजकों से कोई सम्बन्ध है क्या ?

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